अग्नि के भेद |
यज्ञादि कर्मों में अग्नि के नाम एवं वेदों में अग्नि की महत्ता अग्नि की उत्पत्ति के सम्बन्ध में पौराणिक गाथा इस प्रकार है-सर्वप्रथम धर्म की वसु नामक पत्नी से अग्नि उत्पन्न हुआ। उसकी पत्नी स्वाहा से उसके तीन पुत्र हुए-
![]() पुंसवने चन्द्रनामा शुगांकर्मणि शोभन:।। सीमन्ते मंगलो नाम प्रगल्भो जातकर्मणि। नाग्नि स्यात्पार्थिवी ह्यग्नि: प्राशने च शुचिस्तथा।। सत्यनामाथ चूडायां व्रतादेशे समुद्भव:। गोदाने सूर्यनामा च केशान्ते ह्यग्निरुच्यते।। वैश्वानरो विसर्गे तु विवाहे योजक: स्मृत:। चतुर्थ्यान्तु शिखी नाम धृतिरग्निस्तथा परे।। प्रायश्चित्ते विधुश्चैव पाकयज्ञे तु साहस:। लक्षहोमे तु वह्नि:स्यात कोटिहोमे हुताश्न:।। पूर्णाहुत्यां मृडो नाम शान्तिके वरदस्तथा। पौष्टिके बलदश्चैव क्रोधाग्निश्चाभिचारिके।। वश्यर्थे शमनी नाम वरदानेऽभिदूषक:। कोष्ठे तु जठरी नाम क्रव्यादो मृतभक्षणे।। अर्थात पुंसवन में "चन्द्रमा शुगांकर्म में "शोभन सीमान्त में "मंगल जातकर्म में 'प्रगल्भ नामकरण में "पार्थिव अन्नप्राशन में 'शुचि चूड़ाकर्म में "सत्य व्रतबन्ध (उपनयन) में "समुद्भव गोदान में "सूर्य केशान्त (समावर्तन) में "अग्नि विसर्ग (अर्थात् अग्निहोत्रादिक्रियाकलाप) में "वैश्वानर विवाह में "योजक चतुर्थी में "शिखी धृति में "अग्नि प्रायश्चित (अर्थात् प्रायश्चित्तात्मक महाव्याहृतिहोम) में "विधु पाकयज्ञ (अर्थात् पाकांग होम, वृषोत्सर्ग, गृहप्रतिष्ठा आदि में) 'साहस लक्षहोम में "वह्नि कोटि होम में "हुताशन पूर्णाहुति में "मृड शान्ति में "वरद पौष्टिक में "बलद आभिचारिक में "क्रोधाग्नि वशीकरण में "शमन वरदान में "अभिदूषक कोष्ठ में "जठर और मृत भक्षण में "क्रव्याद" कहा गया है। ऋग्वेद के अनुसार हिन्दू देवमण्डल का प्राचीनतम सदस्य, वैदिक संहिताओं और ब्राह्मण ग्रन्थों में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। अग्नि के तीन स्थान और तीन मुख्य रूप हैं-
अग्नि की तुलना बृहस्पति और ब्रह्मणस्पति से भी की गई है। वह मंत्र, धी (बुद्धि) और ब्रह्म का उत्पादक है। इस प्रकार का अभेद सूक्ष्मतम तत्त्व से दर्शाया गया है। वैदिक साहित्य में अग्नि के जिस रूप का वर्णन है, उससे विश्व के वैज्ञानिक और दार्शनिक तत्त्वों पर काफ़ी प्रकाश पड़ता है। जैमिनी ने मीमांसासूत्र के "हवि:प्रक्षेपणाधिकरण" में अग्नि के छ: प्रकार बताये हैं-
अग्नि शब्द का व्युत्पत्त्यर्थ इस प्रकार है : जो ऊपर की ओर जाता है'(अगि गतौ, अंगेनलोपश्च, अंग्+नि और नकार का लोप)। वैदिक धर्म के अनुसार अवेस्ता में अग्नि को पाँच प्रकार का माना गया है। परन्तु अग्नि की जितनी उदात्त तथा विशद कल्पना वैदिक धर्म में है, उतनी अन्यंत्र कहीं पर भी नहीं है। वैदिक कर्मकाण्ड का श्रौत भाग और गृह्य का मुख्य केन्द्र अग्निपूजन ही है। वैदिक देवमण्डल में इन्द्र के अनन्तर अग्नि का ही दूसरा स्थान है। जिसकी स्तुति लगभग दो सौ सूक्तों में वर्णित है। अग्नि के वर्णन में उसका पार्थिव रूप ज्वाला, प्रकाश आदि वैदिक ऋषियों के सामने सदा विद्यमान रहता है। अग्नि की तुलना अनेक पशुओं से की गई है। प्रज्वलित अग्नि गर्जनशील वृषभ के समान है। उसकी ज्वाला सौर किरणों के तुल्य, उषा की प्रभा तथा विद्युत की चमक के समान है। उसकी आवाज़ आकाश की गर्जन जैसी गम्भीर है। अग्नि के लिए विशेष गुणों को लक्ष्य कर अनेक अभिधान प्रयुक्त करके किए जाते हैं। अग्नि शब्द का सम्बन्ध लातोनी 'इग्निस्' और लिथुएनियाई 'उग्निस्' के साथ कुछ अनिश्चित सा है, यद्यपि प्रेरणार्थक अज् धातु के साथ भाषा शास्त्रीय दृष्टि से असम्भव नहीं है। प्रज्वलित होने पर धूमशिखा के निकलने के कारण धूमकेतु इस विशिष्टिता का द्योतक एक प्रख्यात अभिधान है। अग्नि का ज्ञान सर्वव्यापी है और वह उत्पन्न होने वाले समस्त प्राणियों को जानता है। इसलिए वह 'जातवेदा:' के नाम से विख्यात है। अग्नि कभी द्यावापृथिवी का पुत्र और कभी द्यौ: का सूनु (पुत्र) कहा गया है। उसके तीन जन्मों का वर्णन वेदों में मिलता है। जिनके स्थान हैं-स्वर्ग, पृथ्वी तथा जल। स्वर्ग, वायु तथा पृथ्वी अग्नि के तीन सिर, तीन जीभ तथा तीन स्थानों का बहुत निर्देश वेद में उपलब्ध होता है। ग्नि के दो जन्मों का भी उल्लेख मिलता है-भूमि तथा स्वर्ग। अग्नि के आनयन की एक प्रख्यात वैदिक कथा ग्रीक कहानी से साम्य रखती है। अग्नि का जन्म स्वर्ग में ही मुख्यत: हुआ, जहाँ से मातरिश्वा ने मनुष्यों के कल्याणार्थ उसका इस भूतल पर आनयन किया। अग्नि प्रसंगत: अन्य समस्त वैदिक देवों में प्रमुख माना गया है। अग्नि का पूजन भारतीय संस्कृति का प्रमुख चिह्न है और वह गृहदेवता के रूप में उपासना और पूजा का एक प्रधान विषय है। इसलिए अग्नि 'गृहा', 'गृहपति' (घर का स्वामी) तथा 'विश्वपति' (जन का रक्षक) कहलाता है। रूप का वर्णन - अग्नि के रूप का वर्णन इस प्रकार है- छागस्थ: साक्षसूत्रोऽग्नि: सप्तार्चि: शक्तिधारक:।। शुभ लक्षण - होम योग्य अग्नि के शुभ लक्षण निम्नांकित हैं- स्निग्ध: प्रदक्षिणश्चैव वह्नि: स्यात् कार्यसिद्धये।। रूप का प्रयोग - योगाग्नि अथवा ज्ञानाग्नि के रूप में भी "अग्नि" का प्रयोग होता है। गीता में यह कथन है- 'ज्ञानाग्निदग्धकर्माणि तमाहु: पण्डितं बुधा:।।' अग्नि का सर्वप्रथम स्थान - पृथ्वी-स्थानीय देवों में अग्नि का सर्वप्रथम स्थान है। अग्नि यज्ञीय अग्नि का प्रतिनिधि रूप है। यज्ञ के द्वारा मनुष्य का सम्बन्ध देवों से होता है। अत: यज्ञ की अग्नि मनुष्य और देवता के बीच सम्बन्ध का सूचक है। परन्तु अग्नि का स्वरूप भौतिक भी है। इनका स्वरूप गरजते हुए वृषभ के समान बतलाया गया है। उन्हें सिर और पैर नहीं हैं परन्तु जिह्वा लाल है। वैदिक मंत्रों में बतलाया गया है कि उत्पत्ति के समय अग्नि का स्वरूप बछड़े के समान है, परन्तु प्रज्वलित होने पर उनका स्वरूप अश्व के समान है। उनकी ज्वाला को विद्युत के समान कहा गया है। काष्ठ और घृत को उनका भोजन माना गया है। अग्नि धूम पताके के समान ऊपर की ओर जाता है। इसी कारण से अग्नि को धूमकेतु कहा गया है। यज्ञ के समय इनका आह्वान किया जाता है कि ये कुश के आसन पर विराजमान हों तथा देवों के हविष को ग्रहण करें। अग्नि का जन्म स्थान स्वर्ग माना गया है। स्वर्ग से मातरिश्वा ने धरती पर इन्हें लाया। अग्नि ज्ञान का प्रतीक है। वह सभी प्राणियों के ज्ञाता देव हैं। अत: इन्हें 'जातवेदा:' कहा गया है। अग्नि को द्युस्थानीय देवता सूर्य भी माना गया है। अग्नि को 'त्रिविध' तथा 'द्विजन्मा' भी कहा गया है। उनका प्रथम जन्म स्वर्ग में तथा दूसरा जन्म जल में (पृथ्वी पर) बतलाया गया है। अग्नि दानवों के भक्षक तथा मानवों के रक्षक माने गए हैं। इनका वर्णन दो सौ वैदिक सूक्तों में प्राप्त होता है। ज्वालायुक्त, पिण्डितशिख, घी एवं सुवर्ण के समान, चिकना और दाहिनी ओर गतिशील अग्नि सिद्धिदायक होता है। शब्द उत्पादन - देहजन्य अग्नि में शब्द उत्पादन की शक्ति होती है, जैसा कि "संगीतदर्पण" में कहा है- ब्रह्मग्रन्थिस्थितं प्राणं स प्रेरयति पावक:।। पावकप्रेरित: सोऽथ क्रमदूर्ध्वपथे चरन्। अतिसूक्ष्मध्वनि नाभौ हृदि सूक्ष्मं गले पुन:।। पुष्टं शीर्षे त्वपुष्टञ्च कृत्रिमं वदने तथा। आविर्भावयतीत्येवं पञ्चधा कीर्त्यते बुधै:।। नकारं प्राणनामानं दकारमनलं विंदु:। जात: प्राणाग्निसंयोगात्तेन नादोऽभिधीयते।। |