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एक ऐसा जंगल जो अनजाने में बन गया पाप का भागीदार

हिंदू धर्म के शास्त्रों व ग्रथों में एेसे कई पात्र और स्थानों के बार में बताया गया है जो अपने आप में ऐतिहासिक व रहस्यमयी है। हिंदू धर्म में देवी-देवताओं की संख्या ज्यादा होने के कारण इनसे जुड़े स्थान व कथाओं की संख्या भी अधिक हैं। लेकिन आज एेसे कई धार्मिक स्थल है, जिनके बारे में किसी को पता नहीं है। तो आईए आज आपको एेसे एक जंगल के बारे में बताते हैं जो सदियों से स्त्री के साथ हुए दुराचार का दंड भोग रहा है।
कुछ पौराणिक मान्यता के अनुसार कि विंध्याचल से लेकर गोदावरी तट तक यह विशाल वन वह वन है जहां श्रीराम ने अपने वनवास के दौरान कई दिनों तक वास किया था। लगभग 93 हज़ार वर्ग किलोमीटर में फैले इस वन में आज छत्तीसगढ़, ओडिशा और आंध्र प्रदेश राज्यों के हिस्से शामिल हैं। इस वन को दण्डकारण्य के नाम से जाना जाता है।
इन वन का यह नाम सुनकर हर कोई हैरानर रह जाता है, क्योंकि भगवान राम के यहां निवास करने के बाद भी आखिर इस वन का नाम दण्डकारण्य क्यों पड़ा। तो आईए आज आपको बताते हैं कि क्यों इस वन के नाम दण्डकारण्य नाम पड़ने का रहस्य। आपको बता दें कि इसके पीछे की अजब-गजब गाथा वाल्मीकि रामायण में मिलती है।
पौराणिक कथा
सतयुग में मनु के पुत्र महान राजा इक्ष्वाकु हुए थे। सूर्यवंश को स्थापित करने वाले इस राजा के सौ पुत्र थे, जिनमें सबसे छोटा पुत्र मंदबुद्धि था। दरअसल उसका आचरण धर्मसंगत नहीं था, वह अपने पिता की एक बात नहीं मानता था। जिसकी वजह से उनके पिता उससे रुष्ट रहते थे। इसी कारण से उसका नाम दंड रखा गया था क्योंकि प्रसिद्ध राजा इक्ष्वाकु के कुशल राजपाठ के लिए वह एक सजा के समान ही प्रतीत होता था। अपने पुत्र के ऐसे आचरण के चलते राजा ने उसे खुद से दूर कर लिया। जिसके लिए उसे विंध्य और शैवल पर्वतों से घिरे पूर्वी-मध्य भारत का शासन सौंपा गया। वहीं राजा ने शुक्राचार्य को दंड का गुरु बनाया, ताकि पुत्र अपने किसी कृत्य के चलते भविष्य में परेशानी का सामना न करना पड़े। उसी दौरान अपने राज्य मधुमंता में स्थित गुरु शुक्राचार्य के आश्रम जाकर दंड ने शास्त्रों का अध्ययन करने का निर्णय लिया। उस सुंदर आश्रम में गुरु की रूपवती कन्या अरजा भी रहा करती थीं। एक दिन दंड की उस पर कुदृष्टि पड़ गई और मर्यादा को भूलकर उसके साथ दुराचार कर बैठा।
जब अरजा ने अपने पिता से पूरी घटना बताई तो अपनी पुत्री की दशा देखकर गुरु शुक्राचार्य क्रोधित हो गए। अब तक आश्रम में एक अच्छे और अनुशासित छात्र के तौर पर शास्त्रों का अध्यापन कर रहे दंड को गुरु ने यह श्राप दे डाला कि अगले सात दिनों के भीतर उसका सारा राजपाठ सहित नाश हो जाएगा। यहां तक कि उसके राज्य से सौ कोस दूर तक श्राप के प्रभाव से श्मशान सा नजारा दिखेगा, जहां किसी भी जीवित जीवजंतु का कोई चिह्न शेष नहीं बचेगा। उसके बाद गुरु शुक्राचार्य अपनी पुत्री से कहा कि वह उसी आश्रम में सरोवर के निकट रहकर ईश्वर की आराधना करें। जो जीव इस अवधि में उसके निकट रहेंगे वे नष्ट होने से बच जाएंगे और इस तरह महान सूर्यवंशी राजा इक्ष्वाकु के पुत्र दंड का सामूल नाश हो गया। जिस राज्य में कभी सुख-सम्पन्नता की धारा बहा करती थी, वहां सात दिनों के बाद श्मशान जैसा सन्नाटा पसर गया। जहां कुछ समय पश्चात ऐसा घना जंगल उत्पन्न हुआ जिसके भीतर सूर्य भी प्रवेश नहीं कर सकता है। इसके बाद से ही उस स्थान का नाम दण्डकारण्य पड़ गया।
इतिहास में इस स्थान का कई जगह वर्णन मिलता है। दंडकारण्य में रहने वाले लोगों को दंडक कहा जाता है। यह स्थान हर युग में चर्चा का विषय रहा। त्रेतायुग में इस जंगल में आकर योगी और संन्यासी तप किया करते थे, इस स्थान पर आकर ध्यान करने से उनकी एकाग्रता अपने चरम पर पहुंच जाती थी। राम, लक्ष्मण और सीता जब वनवास के लिए निकले थे, तब दंडकारण्य के आसपास भी उन्होंने निवास किया था। रामायण काल के दौरान दंडकारण्य, रावण के साम्राज्य का हिस्सा हुआ करता था। पंचवटी, जहां से रावण ने सीता का हरण किया था, वह भी इसी स्थान के आसपास है। रामायण के अनुसार खतरनाक जंगल दंडकारण्य बहुत से राक्षसों, असुरों और खतरनाक जानवरों का निवास हुआ करता था। विन्ध्य पर्वत पर जाने वाले संन्यासियों और ऋषि-मुनियों को दंडकारण्य जैसे खतरनाक जंगल को पार करना पड़ता था, जहां उनका सामना असुरों और राक्षसों से होता था।