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अत्यंत शुभकारी है शंख ध्वनि

वाद्यों और ध्वनियों का हमारे शरीर पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। इस संदर्भ में अतीत के शंख की ध्वनि जहां युद्धकाल में उत्साह बढ़ाने में उपयोगी सिद्ध होती है, वहीं मांगलिक कार्यों में भी शंख की ध्वनि का विशेष महत्व है। हृद्तंत्री के तारों को झंकृत करने, प्रकंपित एवं पुलकित करने में शंख की ध्वनि का प्रभाव सदैव से अनूठा रहा है। पूजा-पाठ, मांगलिक कार्यों में जब शंख बजाया जाता है तो तन-मन पुलकित एवं रोमांचित हो जाता है।




शंख की उत्पत्ति के विषय में बताया जाता है कि समुद्र मंथन के समय चौदह रत्नों में शंख भी निकला। वैसे भी शंख की उत्पत्ति जल से ही होती है। जल ही जीवन का आधार है व सृष्टि की उत्पत्ति भी जल से हुई है। अत: जल से उत्पत्ति के कारण शंख की पावनता तो है ही।
क्षीरसागर में शयन करने वाले सृष्टि के पालनकर्ता भगवान विष्णु के एक हाथ में शंख अत्यधिक पावन माना जाता है। इसका प्रयोग धार्मिक अनुष्ठानों में विशेष रूप से किया जाता है। महाभारत के युद्ध में शंख का अत्यधिक महत्व था। उस समय के प्रमुख महारथियों के पास जो शंख थे, उनका उल्लेख इस प्रकार किया गया है-
पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जय:। पौण्ड्रं दध्मौ महाशंखं भीमकर्मा वृकोदर:।।

अद्भुत शौर्य और शक्ति का संबल शंखनाद से होने के कारण ही योद्धाओं द्वारा इसका प्रयोग किया जाता था। श्रीकृष्ण का ‘पांचजन्य’ नामक शंख तो अद्भुत और अनूठा था, जो महाभारत में विजय का प्रतीक बना। विश्व का सबसे बड़ा शंख केरल राज्य के गुरुवयूर के श्रीकृष्ण मंदिर में सुशोभित है, जिसकी लंबाई लगभग आधा मीटर है तथा वजन दो किलोग्राम है। विविध वयलवाले शंख शुभकारक मानकर लोग अपने पास रखते हैं। पूजागृहों में भी शंख शुभकारक मानकर रखा जाता है। उल्टी आकृति के शंख भी होते हैं। इन्हें विशेष साधना में प्रयुक्त किया जाता है तथा समृद्धि और सफलता का प्रतीक माना जाता है। संस्कृत में इसके विविध नामों का उल्लेख मिलता है।
शंख, समुद्रज, कंबु, सुनाद, पावनध्वनि, कंबु, कंबोज, अब्ज, त्रिरेख, जलज, अर्णोभव, महानाद, मुखर, दीर्घनाद, बहुनाद, हरिप्रिय, सुरचर, जलोद्भव, विष्णुप्रिय, धवल, स्त्रीविभूषण, पांचजन्य, अर्णवभव आदि।
शंखों के प्रकार के बारे में शास्त्र में बताया गया है-
द्विधासदक्षिणावर्तिर्वामावत्तिर्स्तुभेदत: दक्षिणावर्तशंकरवस्तु पुण्ययोगादवाप्यते यद्गृहे तिष्ठति सोवै लक्ष्म्याभाजनं भवेत्

अर्थात् शंख दो प्रकार के होते हैं- दक्षिणावर्ती एवं वामावर्ती। दक्षिणावर्ती शंख पुण्य के ही योग से प्राप्त होता है। यह शंख जिस घर में रहता है, वहां लक्ष्मी की वृद्धि होती है। इसका प्रयोग अर्घ्य आदि देने के लिए विशेषत: होता है। वामवर्ती शंख का पेट बाईं ओर खुला होता है। इसके बजाने के लिए एक छिद्र होता है। इसकी ध्वनि से रोगोत्पादक कीटाणु कमजोर पड़ जाते हैं।
श्रेष्ठ शंख के लक्षण के विषय में शास्त्रों में कहा गया है-
शंखस्तुविमल: श्रेष्ठश्चन्द्रकांतिसमप्रभ: अशुद्धोगुणदोषैवशुद्धस्तु सुगुणप्रद:

अर्थात् निर्मल व चन्द्रमा की कांति के समानवाला शंख श्रेष्ठ होता है जबकि अशुद्ध अर्थात् मग्न शंख गुणदायक नहीं होता। गुणोंवाला शंख ही प्रयोग में लाना चाहिए। वर्तमान समय में शंख का प्रयोग प्राय: पूजा-पाठ में किया जाता है। अत: पूजारंभ में शंखमुद्रा से शंख की प्रार्थना की जाती है।
त्वं पुरा सागरोत्पन्नो विष्णुना विधृत: करे। नमित: सर्वदेवैश्य पाञ्चजन्य नमो स्तुते।।