समुद्र मंथन क्यों करना पड़ा, समुद्र मंथन कहाँ हुआ

समुद्र मंथन क्यों करना पड़ा, समुद्र मंथन कहाँ हुआ
धर्म ग्रंथों के अनुसार, एक बार महर्षि दुर्वासा के श्राप के कारण स्वर्ग ऐश्वर्य, धन और वैभव आदि से हीन हो गया। तब सभी देवता भगवान विष्णु के पास गए। भगवान विष्णु ने उन्हें असुरों के साथ मिलकर समुद्र मंथन करने का उपाय बताया। उन्होंने कहा कि समुद्र मंथन से अमृत निकलेगा, जिसे ग्रहण कर तुम अमर हो जाओगे। यह बात जब देवताओं ने असुरों के राजा बलि को बताई तो वे भी समुद्र मंथन के लिए तैयार हो गए। वासुकी नाग की नेती बनाई गई और मंदराचल पर्वत की सहायता से समुद्र मंथन किया जाना तय हुआ, लेकिन इसके बाद बारी आई कि मंदार पर्वत के भार को कौन उठाएगा। तब भगवान विष्णु ने कछुए का रूप धारण किया और अपनी पीठ पर मंदार पर्वत को रख लिया। तब कई वर्षों तक समुद्र मंथन का काम चलता रहा। तब जाकर सबसे पहले मंथन से हलाहल निकला। इसे भगवान शिव ने पी लिया। तब ही से उन्हें नीलकंठ कहा जाने लगा। इसके बाद कामधेनू गाय, उच्चैश्रवा घोड़ा, ऐरावत हाथी,  कौस्तुभमणि हीरा, कल्पवृष पेड़ और ऐसे 13 रत्न निकले। सबसे आखिर में देवी लक्ष्मी समुद्र मंथन से निकलीं। जैसे ही देवी लक्षमी समुद्र से बाहर आईं सभी देवताओं के गहने और धन वापिस आ गया।
लक्ष्मीः कौस्तुभपारिजातकसुराधन्वन्तरिश्चन्द्रमाः।
गावः कामदुहा सुरेश्वरगजो रम्भादिदेवांगनाः।।
अश्वः सप्तमुखो विषं हरिधनुः शंखोमृतं चाम्बुधेः।
रत्नानीह चतुर्दश प्रतिदिनं कुर्यात्सदा मंगलम्।।
आइये उन सभी १४ मुख्य रत्नों के विषय में संक्षेप में जान लेते हैं।
हलाहल
हलाहल : इसे ब्रह्माण्ड का सबसे घातक विष माना जाता है। इसकी तीव्रता स्वयं शेषनाग के विष से भी अधिक मानी गयी है। इसकी तुलना महादेव के तीसरे नेत्र की ज्वाला के १००वें भाग से की गयी है। यही नहीं इसकी शक्ति के सामने देवताओं की अमरता भी नहीं ठहर सकती। अर्थात हलाहल की तीव्रता स्वयं अमृत की शक्ति को भी क्षीण कर सकने में सक्षम थी। सृष्टि की रक्षा के लिए महादेव ने उस विष को अपने कंठ में धारण कर लिया और नीलकंठ कहलाये।
ऐरावत
ऐरावत : चार दांतों और पांच सूंडों वाले इस अद्भुत श्वेतवर्णित गज का प्रादुर्भाव समुद्र मंथन से हुआ। ऐरावत का अर्थ है "इरा", अर्थात जल से उत्पन्न होने वाला। ऐरावत ने ही कालांतर में महर्षि दुर्वासा की माला तोड़ दी थी जिससे दुर्वासा ने इंद्र को श्राप दिया। उसी श्राप के कारण श्री सहित ऐरावत का भी लोप हो गया था जिसे पुनः समुद्र मंथन से प्राप्त किया गया। इसे देवराज इंद्र ने पुनः अपने वाहन के रूप में स्वीकार किया।
कामधेनु
कामधेनु : कामधेनु को प्रथम गौ कहा गया है। इनका एक नाम सुरभि भी है। यही नंदिनी गाय की माता भी हैं। महादेव के ११ रुद्रावतार इन्ही कामधेनु के पुत्र माने गए हैं। कहा जाता है कि कामधेनु में सभी देवताओं का वास है। इन्ही से समस्त गौ और महिष (भैंस) जाति की उत्पत्ति हुई। इसे भी स्वर्गलोक में रखा गया जिसपर बाद में देवताओं का अधिकार हो गया। बाद में इनकी पुत्री नंदिनी को ब्रह्मा पुत्र महर्षि वशिष्ठ ने प्राप्त किया।
उच्चैःश्रवा
उच्चैःश्रवा : इसे अश्वों का राजा कहा गया है। इनके सात मुख थे और इनका रंग पूर्ण श्वेत था। इसकी शक्ति अपार बताई गयी है और इसे मन की गति से चलने वाला अश्व कहा गया है। श्रीमद्भागवत गीता में श्रीकृष्ण ने स्वयं को अश्वों में उच्चैःश्रवा कहा है। उस समय दैत्यराज बलि ने इसे प्राप्त किया किन्तु बाद में इंद्र ने इस पर अपना अधिकार कर लिया। आगे चल कर तारकासुर ने इसे इंद्र से छीन लिया था। कार्तिकेय द्वारा तारकासुर का वध होने के पश्चात इंद्र ने पुनः इसे प्राप्त किया। इसी अश्व के रंग को लेकर महर्षि कश्यप की पत्नी कुद्रू एवं विनता में शर्त लगी थी जिसे कुद्रू ने छल से जीत लिया था। 
कौस्तुभ मणि
कौस्तुभ मणि : सूर्य की आभा को भी फीकी कर देने वाली ये मणि संसार में सर्वश्रेठ मानी जाती है। देवों और दैत्यों ने इसे श्रीहरि को प्रदान किया। ये मणि सदैव श्रीहरि के ह्रदय के पास रहती है। महाभारत में श्रीकृष्ण के पास भी इस मणि के होने का वर्णन आता है। कुछ मान्यताओं के अनुसार ये मणि कालिया नाग के पास थी और श्रीकृष्ण द्वारा उसके मर्दन के पश्चात उसने ये मणि उन्हें दे दी।
कल्पवृक्ष
कल्पवृक्ष : ये एक अद्भुत दिव्य वृक्ष है जो सभी कामनाओं को पूर्ण करता है। कहा जाता है कि इसके नीचे बैठ कर जो कुछ भी माँगा जाये वो प्राप्त होता है। इस वृक्ष को अनश्वर भी माना गया है। इसे देवताओं ने प्राप्त किया और इसकी स्थापना स्वर्ग के नंदन वन में की गयी।
रम्भा
रम्भा : रम्भा को प्रथम अप्सरा माना जाता है। इनका रूप अद्वितीय था और ये सभी अप्सराओं की प्रधान थी। इन्हे इंद्र ने स्वर्गलोक में रख लिया। इनका विवाह कुबेर के पुत्र नलकुबेर से हुआ। रावण ने बलात इनसे सम्बन्ध स्थापित किया और तब इन्होने उसे श्राप दिया था कि यदि वो किसी स्त्री के साथ उसकी इच्छा के बिना समागम करेगा तो उसके सर के टुकड़े हो जाएंगे। इसी श्राप के कारण रावण माता सीता को स्पर्श नहीं कर सकता था। द्वापर में इन्हे शेशिरायनण की पत्नी बताया गया है जिनका पुत्र कालयवन था। ये बाद में श्रीकृष्ण द्वारा छला गया और राजा मुचुकंद द्वारा मारा गया। रम्भा ने विश्वामित्र की तपस्या भंग करने का प्रयास किया जिस पर उन्होंने उसे शिला में बदल दिया। कुछ कथाओं के अनुसार समुद्र मंथन से रम्भा के साथ कई और अप्सराओं का भी जन्म हुआ था जिसे देवों और दैत्यों ने आपस में बाँट लिया।
महालक्ष्मी
महालक्ष्मी : भगवान विष्णु की सहगामिनी। समुद्र मंथन से उत्पन्न होने के कारण इन्हे सागर कन्या भी कहा गया। महर्षि दुर्वासा के श्राप से "श्री" अर्थात माता लक्ष्मी का लोप हो गया जिससे समस्त सृष्टि धन-धन्य से शून्य हो गयी। समुद्र मंथन से उत्पन्न होने पर देव और दैत्य इनकी सुंदरता पर मुग्ध हो गए किन्तु तब ब्रह्मा जी ने सब को उनकी वास्तविकता से अवगत करवाया। बाद में माता लक्ष्मी ने श्रीहरि को अपने पति के रूप में चुना और पुनः वैकुण्ठ लौटी।
वारुणी
वारुणी : समुद्र मंथन की कथा के अनुसार ये एक देवी थी जिन्होंने वरुण को अपने पति के रूप में चुना। आम तौर पर इसे मदिरा के रूप में भी वर्णित किया गया है। वर्णन है कि वरुणि मदिरा को दैत्यों ने अपने अधिकार में ले लिया। अमृत की रक्षा के लिए मोहिनी रुपी भगवान विष्णु ने इसी वारुणी को दैत्यों को पिला दिया था जिससे वे अपनी चेतना खो बैठे और देवों ने अवसर का लाभ उठा कर अमृत प्राप्त कर लिया।
चन्द्रमा
चन्द्रमा : ब्रह्मा जी के अंश और महर्षि अत्रि और माता अनुसूया के पुत्र चंद्र को भी रत्न के रूप में मान्यता प्राप्त है। समुद्र मंथन से निकलने के पश्चात इनकी गिनती देवताओं में हुई और महादेव ने इन्हे अपने शीश पर धारण किया। इन्होने ही स्वर्भानु (राहु-केतु) के छल के बारे में मोहिनी रुपी श्रीहरि को बताया था।
श्राङ्ग
श्राङ्ग : इसे महादेव के पिनाक के साथ संसार का सर्वश्रेष्ठ धनुष माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि यहीं से धनुर्वेद का प्रादुर्भाव हुआ। इसे भगवान विष्णु ने धारण किया। अन्य कथाओं के अनुसार पिनाक और श्राङ्ग को विश्वकर्मा ने बनाया था। बाद में श्रीहरि ने इसे महर्षि ऋचीक को दे दिया और उन्होंने इस धनुष को अपने पोते भगवान परशुराम को प्रदान किया। श्रीराम ने परशुराम के कहने पर इसी धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई थी। महाभारत में ये धनुष श्रीकृष्ण के पास था और कहा जाता है कि उनके अतिरिक्त केवल अर्जुन ही इसे संभाल सकते थे।
पांचजन्य
पांचजन्य : इसे विश्व का प्रथम शंख माना जाता है। कहा जाता है कि इसके नाद से, जहाँ तक इसका स्वर जाता था, वहाँ से आसुरी शक्तियों का नाश हो जाता था। इसे बहुत विशाल और भारी बताया गया है। इसे भी श्रीहरि ने धारण किया। महाभारत में ये शंख श्रीकृष्ण के पास था।
धन्वन्तरि
धन्वन्तरि : इन्हे भगवान विष्णु के २४ अवतारों में से एक माना जाता है। ये आयुर्वेद के जनक थे। नारायण की भांति ही ये भी चतुर्भुज हैं और अपने हाथों में शंख, चक्र, औषधि और अमृत धारण करते हैं। कुछ मान्यताओं के अनुसार समुद्र मंथन से इनका प्रादुर्भाव माता लक्ष्मी से दो दिन पहले हुआ था इसीलिए दीपावली से दो दिन पहले धनतेरस पर्व मनाया जाता है।
अमृत
अमृत : अमृत एक ऐसा पेय है जो अमरता प्रदान करता है। अर्थ इसे पीने वाला कभी नहीं मरता। साथ ही ये प्राणी को रोग और बुढ़ापे से भी बचाता है। ऋग्वेद में शायद इसे ही सोमरस कहा गया है। समुद्र मंथन के अंतिम रत्न के रूप में अमृत को लेकर स्वयं देव धन्वन्तरि निकले थे। अमृत को देखते ही देव और दैत्य उसे प्राप्त करने को दौड़े। धन्वन्तरि इसे बचाने को भागने लगे। तब श्रीहरि ने मोहिनी अवतार लेकर अमृत की रक्षा की और छल से देवताओं को अमृत और दैत्यों को वारुणी पिला दिया। इसी अमृत से अमर होकर और बल प्राप्त कर देवताओं ने पुनः युद्ध कर दैत्यों से स्वर्ग वापस ले लिया।