श्री नक्षत्र सूक्तम्

श्री नक्षत्र सूक्तम्

|| श्री नक्षत्र सुक्तम ||


|| ॐ ||


अग्निर्नः' पातु कृत्ति'काः | नक्ष'त्रं देवमि'न्द्रियम् |
इदमा'सां विचक्षणम् | हविरासं जु'होतन |
यस्य भान्ति' रश्मयो यस्य' केतवः' | यस्येमा विश्वा भुव'नानि सर्वा'' |
स कृत्ति'काभिरभिसंवसा'नः | अग्निर्नो' देवस्सु'विते द'धातु || 1 ||

प्रजाप'ते रोहिणीवे'तु पत्नी'' | विश्वरू'पा बृहती चित्रभा'नुः |
सा नो' यज्ञस्य' सुविते द'धातु | यथा जीवे'म शरदस्सवी'राः |
रोहिणी देव्युद'गात्पुरस्ता''त् | विश्वा' रूपाणि' प्रतिमोद'माना |
प्रजाप'तिग्^म् हविषा' वर्धय'न्ती | प्रिया देवानामुप'यातु यज्ञम् || 2 ||

सोमो राजा' मृगशीर्षेण आगन्न्' | शिवं नक्ष'त्रं प्रियम'स्य धाम' |
आप्याय'मानो बहुधा जने'षु | रेतः' प्रजां यज'माने दधातु |
यत्ते नक्ष'त्रं मृगशीर्षमस्ति' | प्रियग्^म् रा'जन् प्रियत'मं प्रियाणा''म् |
तस्मै' ते सोम हविषा' विधेम | शन्न' एधि द्विपदे शं चतु'ष्पदे || 3 ||

आर्द्रया' रुद्रः प्रथ'मा न एति | श्रेष्ठो' देवानां पति'रघ्नियाना''म् |
नक्ष'त्रमस्य हविषा' विधेम | मा नः' प्रजाग्^म् री'रिषन्मोत वीरान् |
हेति रुद्रस्य परि'णो वृणक्तु | आर्द्रा नक्ष'त्रं जुषताग्^म् हविर्नः' |
प्रमुञ्चमा'नौ दुरितानि विश्वा'' | अपाघशगं' सन्नुदतामरा'तिम् | || 4||

पुन'र्नो देव्यदि'तिस्पृणोतु | पुन'र्वसूनः पुनरेतां'' यज्ञम् |
पुन'र्नो देवा अभिय'न्तु सर्वे'' | पुनः' पुनर्वो हविषा' यजामः |
एवा न देव्यदि'तिरनर्वा | विश्व'स्य भर्त्री जग'तः प्रतिष्ठा |
पुन'र्वसू हविषा' वर्धय'न्ती | प्रियं देवाना-मप्ये'तु पाथः' || 5||

बृहस्पतिः' प्रथमं जाय'मानः | तिष्यं' नक्ष'त्रमभि सम्ब'भूव |
श्रेष्ठो' देवानां पृत'नासुजिष्णुः | दिशोऽनु सर्वा अभ'यन्नो अस्तु |
तिष्यः' पुरस्ता'दुत म'ध्यतो नः' | बृहस्पति'र्नः परि'पातु पश्चात् |
बाधे'तान्द्वेषो अभ'यं कृणुताम् | सुवीर्य'स्य पत'यस्याम || 6 ||

इदग्^म् सर्पेभ्यो' हविर'स्तु जुष्टम्'' | आश्रेषा येषा'मनुयन्ति चेतः' |
ये अन्तरि'क्षं पृथिवीं क्षियन्ति' | ते न'स्सर्पासो हवमाग'मिष्ठाः |
ये रो'चने सूर्यस्यापि' सर्पाः | ये दिवं' देवीमनु'सञ्चर'न्ति |
येषा'मश्रेषा अ'नुयन्ति कामम्'' | तेभ्य'स्सर्पेभ्यो मधु'मज्जुहोमि || 7 ||

उप'हूताः पितरो ये मघासु' | मनो'जवसस्सुकृत'स्सुकृत्याः |
ते नो नक्ष'त्रे हवमाग'मिष्ठाः | स्वधाभि'र्यज्ञं प्रय'तं जुषन्ताम् |
ये अ'ग्निदग्धा येऽन'ग्निदग्धाः | ये'ऽमुल्लोकं पितरः' क्षियन्ति' |
याग्/श्च' विद्मयाग्^म् उ' च न प्र'विद्म | मघासु' यज्ञग्^म् सुकृ'तं जुषन्ताम् || 8||

गवां पतिः फल्गु'नीनामसि त्वम् | तद'र्यमन् वरुणमित्र चारु' |
तं त्वा' वयग्^म् स'नितारगं' सनीनाम् | जीवा जीव'न्तमुप संवि'शेम |
येनेमा विश्वा भुव'नानि सञ्जि'ता | यस्य' देवा अ'नुसंयन्ति चेतः' |
अर्यमा राजाऽजरस्तु वि'ष्मान् | फल्गु'नीनामृषभो रो'रवीति || 9 ||

श्रेष्ठो' देवानां'' भगवो भगासि | तत्त्वा' विदुः फल्गु'नीस्तस्य' वित्तात् |
अस्मभ्यं' क्षत्रमजरगं' सुवीर्यम्'' | गोमदश्व'वदुपसन्नु'देह |
भगो'ह दाता भग इत्प्र'दाता | भगो' देवीः फल्गु'नीरावि'वेश |
भगस्येत्तं प्र'सवं ग'मेम | यत्र' देवैस्स'धमादं' मदेम | || 10 ||

आयातु देवस्स'वितोप'यातु | हिरण्यये'न सुवृता रथे'न |
वहन्, हस्तगं' सुभगं' विद्मनाप'सम् | प्रयच्छ'न्तं पपु'रिं पुण्यमच्छ' |
हस्तः प्रय'च्छ त्वमृतं वसी'यः | दक्षि'णेन प्रति'गृभ्णीम एनत् |
दातार'मद्य स'विता वि'देय | यो नो हस्ता'य प्रसुवाति' यज्ञम् ||11 ||

त्वष्टा नक्ष'त्रमभ्ये'ति चित्राम् | सुभग्^म् स'संयुवतिग्^म् राच'मानाम् |
निवेशय'न्नमृतान्मर्त्याग्'श्च | रूपाणि' पिग्ंशन् भुव'नानि विश्वा'' |
तन्नस्त्वष्टा तदु' चित्रा विच'ष्टाम् | तन्नक्ष'त्रं भूरिदा अ'स्तु मह्यम्'' |
तन्नः' प्रजां वीरव'तीग्^म् सनोतु | गोभि'र्नो अश्वैस्सम'नक्तु यज्ञम् || 12 ||

वायुर्नक्ष'त्रमभ्ये'ति निष्ट्या''म् | तिग्मशृं'गो वृषभो रोरु'वाणः |
समीरयन् भुव'ना मातरिश्वा'' | अप द्वेषागं'सि नुदतामरा'तीः |
तन्नो' वायस्तदु निष्ट्या' शृणोतु | तन्नक्ष'त्रं भूरिदा अ'स्तु मह्यम्'' |
तन्नो' देवासो अनु'जानन्तु कामम्'' | यथा तरे'म दुरितानि विश्वा'' || 13 ||

दूरमस्मच्छत्र'वो यन्तु भीताः | तदि'न्द्राग्नी कृ'णुतां तद्विशा'खे |
तन्नो' देवा अनु'मदन्तु यज्ञम् | पश्चात् पुरस्तादभ'यन्नो अस्तु |
नक्ष'त्राणामधि'पत्नी विशा'खे | श्रेष्ठा'विन्द्राग्नी भुव'नस्य गोपौ |
विषू'चश्शत्रू'नपबाध'मानौ | अपक्षुध'न्नुदतामरा'तिम् | || 14 ||

पूर्णा पश्चादुत पूर्णा पुरस्ता''त् | उन्म'ध्यतः पौ''र्णमासी जि'गाय |
तस्यां'' देवा अधि'संवस'न्तः | उत्तमे नाक' इह मा'दयन्ताम् |
पृथ्वी सुवर्चा' युवतिः सजोषा''ः | पौर्णमास्युद'गाच्छोभ'माना |
आप्यायय'न्ती दुरितानि विश्वा'' | उरुं दुहां यज'मानाय यज्ञम् || 15 ||

ऋद्ध्यास्म' हव्यैर्नम'सोपसद्य' | मित्रं देवं मि'त्रधेयं' नो अस्तु |
अनूराधान्, हविषा' वर्धय'न्तः | शतं जी'वेम शरदः सवी'राः |
चित्रं नक्ष'त्रमुद'गात्पुरस्ता''त् | अनूराधा स इति यद्वद'न्ति |
तन्मित्र ए'ति पथिभि'र्देवयानै''ः | हिरण्ययैर्वित'तैरन्तरि'क्षे || 16 ||

इन्द्रो'' ज्येष्ठामनु नक्ष'त्रमेति | यस्मि'न् वृत्रं वृ'त्र तूर्ये' ततार' |
तस्मि'न्वय-ममृतं दुहा'नाः | क्षुध'न्तरेम दुरि'तिं दुरि'ष्टिम् |
पुरन्दराय' वृषभाय' धृष्णवे'' | अषा'ढाय सह'मानाय मीढुषे'' |
इन्द्रा'य ज्येष्ठा मधु'मद्दुहा'ना | उरुं कृ'णोतु यज'मानाय लोकम् | || 17 ||

मूलं' प्रजां वीरव'तीं विदेय | परा''च्येतु निरृ'तिः पराचा |
गोभिर्नक्ष'त्रं पशुभिस्सम'क्तम् | अह'र्भूयाद्यज'मानाय मह्यम्'' |
अह'र्नो अद्य सु'विते द'दातु | मूलं नक्ष'त्रमिति यद्वद'न्ति
| परा'चीं वाचा निरृ'तिं नुदामि | शिवं प्रजायै' शिवम'स्तु मह्यम्'' || 18 ||

या दिव्या आपः पय'सा सम्बभूवुः | या अन्तरि'क्ष उत पार्थि'वीर्याः |
यासा'मषाढा अ'नुयन्ति कामम्'' | ता न आपः शग्ग् स्योना भ'वन्तु |
याश्च कूप्या याश्च' नाद्या''स्समुद्रिया''ः | याश्च' वैशन्तीरुत प्रा'सचीर्याः |
यासा'मषाढा मधु' भक्षय'न्ति | ता न आपः शग्ग् स्योना भ'वन्तु ||19 ||

तन्नो विश्वे उप' शृण्वन्तु देवाः | तद'षाढा अभिसंय'न्तु यज्ञम् |
तन्नक्ष'त्रं प्रथतां पशुभ्यः' | कृषिर्वृष्टिर्यज'मानाय कल्पताम् |
शुभ्राः कन्या' युवतय'स्सुपेश'सः | कर्मकृत'स्सुकृतो' वीर्या'वतीः |
विश्वा''न् देवान्, हविषा' वर्धय'न्तीः | अषाढाः काममुपा'यन्तु यज्ञम् || 20 ||

यस्मिन् ब्रह्माभ्यज'यत्सर्व'मेतत् | अमुञ्च' लोकमिदमू'च सर्वम्'' |
तन्नो नक्ष'त्रमभिजिद्विजित्य' | श्रियं' दधात्वहृ'णीयमानम् |
उभौ लोकौ ब्रह्म'णा सञ्जि'तेमौ | तन्नो नक्ष'त्रमभिजिद्विच'ष्टाम् |
तस्मि'न्वयं पृत'नास्सञ्ज'येम | तन्नो' देवासो अनु'जानन्तु कामम्'' || 21 ||

शृण्वन्ति' श्रोणाममृत'स्य गोपाम् | पुण्या'मस्या उप'शृणोमि वाचम्'' |
महीं देवीं विष्णु'पत्नीमजूर्याम् | प्रतीची' मेनाग्^म् हविषा' यजामः |
त्रेधा विष्णु'रुरुगायो विच'क्रमे | महीं दिवं' पृथिवीमन्तरि'क्षम् |
तच्छ्रोणैतिश्रव'-इच्छमा'ना | पुण्यग्ग् श्लोकं यज'मानाय कृण्वती || 22 ||

अष्टौ देवा वस'वस्सोम्यासः' | चत'स्रो देवीरजराः श्रवि'ष्ठाः |
ते यज्ञं पा''न्तु रज'सः पुरस्ता''त् | संवत्सरीण'ममृतग्ग्' स्वस्ति |
यज्ञं नः' पान्तु वस'वः पुरस्ता''त् | दक्षिणतो'ऽभिय'न्तु श्रवि'ष्ठाः |
पुण्यन्नक्ष'त्रमभि संवि'शाम | मा नो अरा'तिरघशगंसाऽगन्न्' || 23 ||

क्षत्रस्य राजा वरु'णोऽधिराजः | नक्ष'त्राणाग्^म् शतभि'षग्वसि'ष्ठः |
तौ देवेभ्यः' कृणुतो दीर्घमायुः' | शतग्^म् सहस्रा' भेषजानि' धत्तः |
यज्ञन्नो राजा वरु'ण उप'यातु | तन्नो विश्वे' अभि संय'न्तु देवाः |
तन्नो नक्ष'त्रग्^म् शतभि'षग्जुषाणम् | दीर्घमायुः प्रति'रद्भेषजानि' || 24 ||

अज एक'पादुद'गात्पुरस्ता''त् | विश्वा' भूतानि' प्रति मोद'मानः |
तस्य' देवाः प्र'सवं य'न्ति सर्वे'' | प्रोष्ठपदासो' अमृत'स्य गोपाः |
विभ्राज'मानस्समिधा न उग्रः | आऽन्तरि'क्षमरुहदगन्द्याम् |
तग्^म् सूर्यं' देवमजमेक'पादम् | प्रोष्ठपदासो अनु'यन्ति सर्वे'' || 25 ||

अहि'र्बुध्नियः प्रथ'मा न एति | श्रेष्ठो' देवाना'मुत मानु'षाणाम् |
तं ब्रा''ह्मणास्सो'मपास्सोम्यासः' | प्रोष्ठपदासो' अभिर'क्षन्ति सर्वे'' |
चत्वार एक'मभि कर्म' देवाः | प्रोष्ठपदा स इति यान्, वद'न्ति |
ते बुध्नियं' परिषद्यग्ग्' स्तुवन्तः' | अहिगं' रक्षन्ति नम'सोपसद्य' || 26 ||

पूषा रेवत्यन्वे'ति पन्था''म् | पुष्टिपती' पशुपा वाज'बस्त्यौ |
इमानि' हव्या प्रय'ता जुषाणा | सुगैर्नो यानैरुप'यातां यज्ञम् |
क्षुद्रान् पशून् र'क्षतु रेवती' नः | गावो' नो अश्वागं अन्वे'तु पूषा |
अन्नगं रक्ष'न्तौ बहुधा विरू'पम् | वाजगं' सनुतां यज'मानाय यज्ञम् || 27 ||

तदश्विना'वश्वयुजोप'याताम् | शुभङ्गमि'ष्ठौ सुयमे'भिरश्वै''ः |
स्वं नक्ष'त्रग्^म् हविषा यज'न्तौ | मध्वासम्पृ'क्तौ यजु'षा सम'क्तौ |
यौ देवानां'' भिषजौ'' हव्यवाहौ | विश्व'स्य दूतावमृत'स्य गोपौ |
तौ नक्षत्रं जुजुषाणोप'याताम् | नमोऽश्विभ्यां'' कृणुमोऽश्वयुग्भ्या''म् || 28 ||

अप' पाप्मानं भर'णीर्भरन्तु | तद्यमो राजा भग'वान्, विच'ष्टाम् |
लोकस्य राजा' महतो महान्, हि | सुगं नः पन्थामभ'यं कृणोतु |
यस्मिन्नक्ष'त्रे यम एति राजा'' | यस्मि'न्नेनमभ्यषिं'चन्त देवाः |
तद'स्य चित्रग्^म् हविषा' यजाम | अप' पाप्मानं भर'णीर्भरन्तु || 29 ||

निवेश'नी सङ्गम'नी वसू'नां विश्वा' रूपाणि वसू''न्यावेशय'न्ती |
सहस्रपोषग्^म् सुभगा ररा'णा सा न आगन्वर्च'सा संविदाना |
यत्ते' देवा अद'धुर्भागधेयममा'वास्ये संवस'न्तो महित्वा |
सा नो' यज्ञं पि'पृहि विश्ववारे रयिन्नो' धेहि सुभगे सुवीरम्'' || 30 ||

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः