श्रीलक्ष्मी स्तोत्रम्

श्रीलक्ष्मी स्तोत्रम्

|| श्रीलक्ष्मी स्तोत्रम् ||


सिंहासनगत: शक्रस्सम्प्राप्य त्रिदिवं पुन: ।
देवराज्ये स्थितो देवीं तुष्टावाब्जकरां तत: ।।1।।
अर्थ – इन्द्र ने स्वर्गलोक में जाकर फिर से देवराज्य पर अधिकार पाया और राजसिंहासन पर आरुढ़ हो पद्महस्ता श्रीलक्ष्मी जी की इस प्रकार स्तुति की –


इन्द्र उवाच

नमस्ये सर्वलोकानां जननीमब्जसम्भवाम्।
श्रियमुन्निद्रपद्माक्षीं विष्णुवक्ष:स्थलस्थिताम्।।2।।
अर्थ – इन्द्र बोले – सम्पूर्ण लोकों की जननी, विकसित कमल के सदृश नेत्रों वाली, भगवान विष्णु के वक्ष:स्थल में विराजमान कमलोद्भवा श्रीलक्ष्मी देवी को मैं नमस्कार करता हूँ.


पद्मालयां पद्मकरां पद्मपत्रनिभेक्षणाम्।
वन्दे पद्ममुखीं देवीं पद्मनाभप्रियामहम्।।3।।
अर्थ – कमल ही जिनका निवास स्थान है, कमल ही जिनके करकमलों में सुशोभित है तथा कमल दल के समान ही जिनके नेत्र हैं, उन कमलमुखी कमलनाभप्रिया श्रीकमलादेवी की मैं वन्दना करता हूँ.


त्वं सिद्धिस्त्वं स्वधा स्वाहा सुधा त्वं लोकपावनी ।
सन्ध्या रात्रि: प्रभा भूतिर्मेधा श्रद्धा सरस्वती ।।4।।
अर्थ – हे देवि ! तुम सिद्धि हो, स्वधा हो, स्वाहा हो, सुधा हो और त्रिलोकी को पवित्र करने वाली हो तथा तुम ही सन्ध्या, रात्रि, प्रभा, विभूति, मेधा, श्रद्धा और सरस्वती हो.


यज्ञविद्या महाविद्या गुह्यविद्या च शोभने ।
आत्मविद्या च देवि त्वं विमुक्तिफलदायिनी ।।5।।
अर्थ – हे शोभने ! यज्ञविद्या (कर्मकाण्ड), महाविद्या (उपासना) और गुह्यविद्या (इन्द्रजाल) तुम्हीं हो तथा हे देवि ! तुम्हीं मुक्ति-फलदायिनी आत्मविद्या हो.


आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दण्डनीतिस्त्वमेव च ।
सौम्यासौम्यैर्जगद्रूपैस्त्वयैतद्देवि पूरितम्॥ ६॥
अर्थ – हे देवि ! आन्वीक्षिकी (तर्कविद्या), वेदत्रयी, वार्ता (शिल्पवाणिज्यादि) और दण्डनीति (राजनीति) भी तुम्हीं हो. तुम्हीं ने अपने शान्त और उग्ररूपों से इस समस्त संसार को व्याप्त कर रखा है.


का त्वन्या त्वामृते देवि सर्वयज्ञमयं वपु: ।
अध्यास्ते देवदेवस्य योगिचिन्त्यं गदाभृत: ।।7।।
अर्थ – हे देवि ! तुम्हारे बिना और ऎसी कौन स्त्री है जो देवदेव भगवान गदाधर के योगिजन चिन्तित सर्वयज्ञमय शरीर का आश्रय पा सके.


त्वया देवि परित्यक्तं सकलं भुवनत्रयम्।
विनष्टप्रायमभवत्त्वयेदानीं समेधितम्।।8।।
अर्थ – हे देवि ! तुम्हारे छोड़ देने पर सम्पूर्ण त्रिलोकी नष्टप्राय हो गई थी, अब तुम्हीं ने उसे पुन: जीवनदान दिया है.


दारा: पुत्रास्तथागारसुहृद्धान्यधनादिकम्।
भवत्येतन्महाभागे नित्यं त्वद्वीक्षणान्नृणाम्।।9।।
अर्थ – हे महाभागे ! स्त्री, पुत्र, गृह, धन, धान्य तथा सुहृद – ये सब सदा आप ही के दृष्टिपात से मनुष्यों को मिलते हैं.


शरीरारोग्यमैश्वर्यमरिपक्षक्षय: सुखम् ।
देवि त्वद्दृ्ष्टिदृष्टानां पुरुषाणां न दुर्लभम् ।।10।।
अर्थ – हे देवि ! तुम्हारी कृपा दृष्टि के पात्र पुरुषों के लिए शारीरिक आरोग्य, ऎश्वर्य, शत्रुपक्ष का नाश और सुख आदि कुछ भी दुर्लभ नहीं है.


त्वं माता सर्वलोकानां देवदेवो हरि: पिता ।
त्वयैतद्विष्णुना चाम्ब जगद्व्याप्तं चराचरम् ।।11।।
अर्थ – तुम सम्पूर्ण लोकों की माता हो और देवदेव भगवान हरि पिता हैं. हे मात: ! तुमसे और श्रीविष्णु भगवान से यह सकल चराचर जगत व्याप्त है.


मा न: कोशं तथा गोष्ठं मा गृहं मा परिच्छदम् ।
मा शरीरं कलत्रं च त्यजेथा: सर्वपावनि ।।12।।
अर्थ – हे सर्वपावनि मातेश्वरि ! हमारे कोश (खजाना), गोष्ठ (पशुशाला), गृह, भोग-सामग्री, शरीर और स्त्री आदि को आप कभी न त्यागें अर्थात इनमें भरपूर रहें.


मा पुत्रान्मा सुहृद्वर्गं मा पशून्मा विभूषणम् ।
त्यजेथा मम देवस्य विष्णोर्वक्ष:स्थलालये ।।13।।
अर्थ – अयि विष्णुवक्ष स्थलनिवासिनी ! हमारे पुत्र, सुहृद, पशु और भूषण आदि को आप कभी न छोड़ें.


सत्त्वेन सत्यशौचाभ्यां तथा शीलादिभिर्गुणै: ।
त्यज्यन्ते ते नरा: सद्य: सन्त्यक्ता ये त्वयामले ।।14।।
अर्थ – हे अमले ! जिन मनुष्यों को तुम छोड़ देती हो उन्हें सत्त्व (मानसिक बल), सत्य, शौच और शील आदि गुण भी शीघ्र ही त्याग देते हैं.


त्वया विलोकिता: सद्य: शीलाद्यैरखिलैर्गुणै: ।
कुलैश्वर्यैश्च युज्यन्ते पुरुषा निर्गुणा अपि ।।15।
अर्थ – तुम्हारी कृपादृष्टि होने पर तो गुणहीन पुरुष भी शीघ्र ही शील आदि सम्पूर्ण गुण और कुलीनता तथा ऎश्वर्य आदि से संपन्न हो जाते हैं.


स श्लाघ्य: स गुणी धन्य: स कुलीन: स बुद्धिमान्।
स शूर: स च विक्रान्तो यस्त्वया देवि वीक्षित: ।।16।।
अर्थ – हे देवि ! जिस पर तुम्हारी कृपादृष्टि है वही प्रशंसनीय है, वही गुणी है, वही धन्यभाग्य है, वही कुलीन और बुद्धिमान है तथा वही शूरवीर और पराक्रमी है.


सद्यो वैगुण्यमायान्ति शीलाद्या: सकला गुणा: ।
पराड़्मुखी जगद्धात्री यस्य त्वं विष्णुवल्लभे ।।17।।
अर्थ – हे विष्णुप्रिये ! हे जगज्जननि ! तुम जिससे विमुख हो, उसके तो शील आदि सभी गुण तुरंत अवगुणरुप हो जाते हैं.


न ते वर्णयितुं शक्ता गुणांजिह्वापि वेधस: ।
प्रसीद देवि पद्माक्षि मास्मांस्त्याक्षी: कदाचन ।।18।।
अर्थ – हे देवि ! तुम्हारे गुणों का वर्णन करने में तो श्रीब्रह्मा जी की रसना भी समर्थ नहीं है. (फिर मैं क्या कर सकता हूँ?) अत: हे कमलनयने ! अब मुझ पर प्रसन्न होओ और मुझे कभी ना छोड़ो.

श्रीपराशर उवाच

एवं श्री: संस्तुता सम्यक् प्राह देवी शतक्रतुम् ।
श्रृण्वतां सर्वदेवानां सर्वभूतस्थिता द्विज ।।19।।
अर्थ – श्री पराशर जी बोले – हे द्विज ! इस प्रकार सम्यक् स्तुति किये जाने पर सर्वभूतस्थिता श्रीलक्ष्मी जी सब देवताओं के सुनते हुए इन्द्र से इस प्रकार बोली –


परितुष्टास्मि देवेश स्तोत्रेणानेन ते हरे ।
वरं वृणीष्व यस्त्विष्टो वरदाहं तवागता ।।20।।
अर्थ – श्रीलक्ष्मी जी बोली – हे देवेश्वर इन्द्र ! मैं तुम्हारे इस स्तोत्र से अति प्रसन्न हूँ, तुमको जो अभीष्ट हो, वही वर माँग लो. मैं तुम्हें वर देने के लिए ही यहाँ आयी हूँ.

इन्द्र उवाच

वरदा यदि मे देवि वरार्हो यदि वाप्यहम् ।
त्रैलोक्यं न त्वया त्याज्यमेष मेsस्तु वर: पर: ।।21।।
अर्थ – इन्द्र बोले – हे देवि ! यदि आप वर देना चाहती हैं और मैं भी यदि वर योग्य हूँ तो मुझको पहला वर तो यही दीजिए कि आप इस त्रिलोकी का कभी त्याग न करें.


स्तोत्रेण यस्तथैतेन त्वां स्तोष्यत्यब्धिसम्भवे ।
स त्वया न परित्याज्यो द्वितीयोsस्तु वरो मम ।।22।।
अर्थ – और हे समुद्रसम्भवे ! दूसरा वर मुझे यह दीजिए कि जो कोई आपकी इस स्तोत्र से स्तुति करे, उसे आप कभी न त्यागें.


श्रीरुवाच

त्रैलोक्यं त्रिदशश्रेष्ठ न सन्त्यक्ष्यामि वासव ।
दत्तो वरो मया यस्ते स्तोत्राराधनतुष्टया ।।23।।
अर्थ – श्रीलक्ष्मी जी बोली – हे देवश्रेष्ठ इन्द्र ! मैं अब इस त्रिलोकी को कभी न छोड़ूँगी. तुम्हारे स्तोत्र से प्रसन्न होकर मैं तुम्हें यह वर देती हूँ.


यश्च सायं तथा प्रात: स्तोत्रेणानेन मानव: ।
मां स्तोष्यति न तस्याहं भविष्यामि पराड़्मुखी ।।24।।
अर्थ – जो कोई मनुष्य प्रात:काल और सायंकाल के समय इस स्तोत्र से मेरी स्तुति करेगा, उससे भी मैं कभी विमुख नहीं होऊँगी.


।।इति श्रीविष्णुमहापुराणे श्रीलक्ष्मी स्तोत्रं सम्पूर्णम्।।

।। इस प्रकार श्रीविष्णु महापुराण में श्रीलक्ष्मीस्तोत्र सम्पूर्ण हुआ ।।